tag:blogger.com,1999:blog-35688621471696149792024-03-08T04:39:31.355-08:00words of kanwal bhartikanwal bhartihttp://www.blogger.com/profile/01262401096919120242noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-3568862147169614979.post-26828439843485348792012-06-09T09:11:00.000-07:002012-06-09T09:11:42.696-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
क्या मालूम कि दलितों के लिए बाबा साहेब आंबेडकर का क्या महत्व है? दलित उन्हें पूजनीय बनाना नहीं चाहते हैं, वे पूजनीय हैं. हिन्दू मेथोलोजी में ईश्वर का चाहे जो अर्थ हो, पर दलित चिंतन में ईश्वर मुक्ति-दाता के अर्थ में आता है. दलित जानते हैं कि दलितों की मुक्ति के दरवाज़े राम, कृषण, विष्णु या किसी पैगम्बर ने नहीं, बल्कि बाबा साहेब आंबेडकर ने खोले थे. वे दलित अस्मिता के खोखले प्रतीक नहीं हैं, बल्कि जीवंत प्रतीक हैं. <br />
कार्टून की सफाई में फेस बुक पर भी गैर दलितों ने ऐसे ही सवाल उठाये हैं. लेकिन जिस महत्वपूर्ण सवाल पर इन लोगों ने बिलकुल विचार नहीं किया, या वे करना नहीं चाहते, वह यह है आखिर साठ साल बाद इस कार्टून को पाठ्य पुस्तक में देने की जरूरत क्यों समझी गयी? वे छात्रों को क्या बताना चाहते हैं? क्या ये छात्र १९४२ के राजनैतिक परिद्रश्य को जानते हैं? एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि कार्टून पर आपत्ति उन टीचर्स को करनी चाहिए थी, जो उसे पढ़ा रहे हैं और उन छात्रों को, जो उसे पढ़ रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि टीचर्स और छात्रों ने विरोध नहीं किया तो किसी अन्य को भी विरोध नहीं करना चाहिए था. यह कुतर्क है. अगर संसद में और उसके बाहर इस पर बहस नहीं हुई होती, तो आंबेडकर पर बनाया गया यह कार्टून एक व्यापक बहस के केंद्र में कभी नहीं आ पाता. NCERT के लोग इस बहस से भाग रहे हैं. वे यह नहीं बता पा रहे हैं कि जो कार्टून पाठ्य पुस्तक के लिए बनाया ही नहीं गया था, उसे पाठ्य पुस्तक में क्यों दिया गया? किसी अखबार के लिए तो आज भी उसकी प्रासंगिकता को समझा जा सकता है, परन्तु पाठ्य पुस्तक में उसकी कोई प्रासंगिकता समझ में नहीं आती. <br />
आइये देखें कि कार्टून-समर्थकों का क्या मत है? अरुण कुमार त्रिपाठी का कहना है कि यह अस्मिताओं की राजनीति का प्रतिफल है. उनके अनुसार जिस लोकतंत्र ने उसे पाला-पोषा, अब वह उसी को खा रही है. यानि, दलित वर्ग कार्टून का विरोध दलित अस्मिता के लिए कर रहा है, जो लोकतंत्र को भी नष्ट कर रहा है. उनका मानना है कि जिन दलितों ने राजनैतिक सत्ता हासिल करके अपनी आर्थिक और सामजिक हैसियत बढ़ा ली है, अब वे अपनी बिरादरी के विपन्न हिस्से को जोड़े रखने के लिए विकल्प-स्वरूप स्वाभिमान के प्रतीक के रूप में आंबेडकर को अवतार बनाने का काम कर रहे हैं. निस्संदेह, डा. आंबेडकर दलित अस्मिता और स्वाभिमान का एक बड़ा प्रतीक हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि दलित उन्हें अवतार बना रहे हैं. गैर दलितों के द्वारा जितनी कटु आलोचना डा. आंबेडकर की हुई है, पिछले ५० सालों में उतनी किसी की भी नहीं हुई है. क्या दलितों ने उसे लोकतान्त्रिक विचार के रूप में स्वीकार नहीं किया? क्या लोकतंत्र नष्ट हुआ? यहाँ यह बता दिया जाये कि लोकतंत्र में यदि किसी की सबसे ज्यादा आस्था है, तो वह दलित वर्ग है, क्योंकि दलितों को लोकतंत्र से ही मुक्ति मिली है. अत: वे उस लोकतंत्र को कैसे नष्ट कर सकते हैं, जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है? लेकिन अरुण कुमार त्रिपाठी जरूर भारत के आगे बढ़ने का रास्ता अतीत में देख रहे हैं. वह सवाल करते हैं कि संकीर्णताओं के दल-दल में फंसे लोकतंत्र को कैसे बाहर निकाला जाये? इसका सही जवाब है वैज्ञानिक सोच. पर, वह ऐसा नहीं मानते. वह कहते हैं कि "कई बार जब आगे का रास्ता नहीं दिखता है, तो अतीत से सबक लिया जाता है. पंडित नेहर्प्प ने इंडिया की डिस्कवरी की थी और आंबेडकर ने बुद्ध एंड हिज धम्म की. क्या आज हमें उस पुराने भारतीय समाज को फिर से देखने की जरूरत है, जो विविधताओं के बावजूद एक-दूसरे को सहता था और जिसकी राजसत्ता पाबंदी की भाषा नहीं बोलती थी?" ( अमर उजाला,मई २३,२०१२ ) यदि अतीत में विविधताओं के बावजूद एक-दूसरे को सहते थे, तो वह राजतन्त्र में लोगों की मजबूरी थी. वहां सबको समान अधिकार प्राप्त नहीं थे और न राजा के खिलाफ लोगों को बोलने का अधिकार था. इसके बावजूद शूद्रों ने विद्रोह किया था, जिसकी कीमत उन्हें अपनी गर्दन कटवा कर चुकानी पड़ी थी. त्रिपाठी जी के लिए वह तंत्र कितना अच्छा था, जिसमें उनके अनुसार राजसत्ता पाबंदी की भाषा नहीं बोलती थी. लेकिन यह उनका भ्रम है. यदि राजसत्ता पाबन्दी की भाषा नहीं बोलती थी, तो मनु के क़ानून क्या हैं? 'स्त्रीशूद्रोनाधियाताम' <br />
कौन सी भाषा है? क्या यह पाबंदी की भाषा नहीं है?<br />
दरअसल कार्टून पर बहस त्रिकोणीय है, यानि लाल और केसरिया बहसों के बीच में नीला रंग भी शामिल हो गया है. नीले रंग ने लाल और केसरिया दोनों की खबर ली है. दलित अस्मिता पर प्रहार इसी वजह से हो रहा है और यह आरोप लगाया जा रहा है कि दलित आंबेडकर को भगवन बनाकर उन्हें आलोचना से परे मान रहे हैं. किन्तु यह आरोप सही नहीं है. यदि आंबेडकर को देव तुल्य मानने वाले कांचा इल्ल्या जैसे कुछ लोग हैं भी तो दलितों में ही उनकी तीखी आलोचना होती है. दलितों के लिए यह कार्टून इसलिए आपत्तिजनक है, क्योंकि इसमें संविधान में विलम्ब के लिए नेहरू को चाबुक मारते हुए दिखाया गया है, जबकि संविधान सभा के सभापति राजेन्द्र प्रसाद थे. आंबेडकर को मसौदा समिति का अध्यक्ष नेहरू ने गाँधी के दबाव में बनाया था. संभवता, नेहरू की सी ग्रंथि को शंकर ने कार्टून में दिखाना चाहा हो. Kanwal Bharti<br />
C - 260\6, Aavas Vikas Colony,<br />
Gangapur Road, Civil Lines, Rampur 244901 <br />
(U.P.)<br />
Ph. No. 09412871013.<br />
<br />
<br /></div>kanwal bhartihttp://www.blogger.com/profile/01262401096919120242noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3568862147169614979.post-77979469252874982222012-06-09T08:45:00.000-07:002012-06-09T08:45:57.186-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h2 style="text-align: left;">
नाच्यो बहुत गोपाल का </h2>
<div style="text-align: left;">
वास्तव में 'नाच्यो बहुत गोपाल' एक मकसद के तहत लिखा गया था और वह मकसद था भंगी जाति को <br />यह बताना कि उसके शत्रु मुसलमान हैं और आर्य समाज उसका उद्धारक है. उन्होंने मोहन को संवेदनहीन बनाया,<br /> उसे डाकू बनाया और एक डाकू के रूप में उससे मुस्लिम ज़मीदार के घर लूटमार करवाई. वे यहीं तक सीमित नहीं रहे,<br /> बल्कि मुस्लिम महिलाओं पर उसके हाथों पाशविक ज़ुल्म भी करवाए. उसने एक मुस्लिम युवती को<br /> बलपूर्वक मेहतरानी बनाने के लिए भी बाध्य किया. यह काम करने के बाद वह गर्व से कहता है--'उस हरामी की पिल्ली को <br />शेखजादी से भंगिन बनाया है. मैंने मुसलामानों से अपने बुजुर्गों का बदला लिया है</div>
</div>kanwal bhartihttp://www.blogger.com/profile/01262401096919120242noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3568862147169614979.post-77679831024158182022012-06-09T08:29:00.001-07:002012-06-09T08:29:25.083-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
आंबेडकर और गांधी पर एक निरर्थक बहस <br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
कुछ लोगों द्वारा SMS करके वोट करने को कहा जा रहा है कि गांधी के बाद या गांधी से बेहतर कौन भारतीय महान है--डा. आंबेडकर या महात्मा गांधी? दलितों को अधिक से अधिक सन्देश भेज कर डा. आंबेडकर का चयन करने को कहा जा रहा है. मेरे मोबाइल फ़ोन पर भी बहुत से सन्देश इसी विषय में आये. मुझे यह सवाल निरर्थक और बेमानी लगा. इस तरह के लोकमत कार्यक्रम केवल भावात्मक होते हैं, जो अपने अहम को ही पुष्ट करते हैं. ये लोकमत इतिहास की उपेक्षा करते हैं. मान लिया कि लोकमत डा. आंबेडकर के पक्ष में आता है, तो क्या गांधी का महत्व ख़त्म हो जायेगा, वह महान नहीं रहेंगे या महानता में नीचे के पायदान पर आ जायेंगे? और यदि लोकमत गांधी के पक्ष में चला जाता है, तो डा. आंबेडकर का महत्व ख़त्म हो जायेगा, वह महान नहीं रहेंगे या महानता से नीचे चले जायेंगे? यह निहायत बेवकूफी का विवाद है, जिसे, मै समझता हूँ, बेवकूफ लोग ही चला रहे हैं. इन लोगों को इतिहास की बिलकुल भी जानकारी नहीं है. आंबेडकर और गांधी की लड़ाई आजादी मिलने के बाद ही ख़त्म हो गयी थी. वह इतिहास का विषय है. इसी इतिहास में यह भी दर्ज है कि आंबेडकर को संविधान सभा में भेजने और मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव गांधी का ही था. गाँधी के प्रयास से ही नेहरु ने उन्हें मंत्री मंडल में शामिल किया था. दलित मुक्ति के आन्दोलन में आंबेडकर के साथ गांधी भी शामिल हैं. इतिहास में दोनों महान हैं और दोनों का ही महत्व है. इतिहास के नायकों को अधिक महान और कम महान के रूप में विभाजित करना अत्यंत शर्मनाक खेल है. </div>kanwal bhartihttp://www.blogger.com/profile/01262401096919120242noreply@blogger.com0